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इम्कान | शाही शायरी
imkan

नज़्म

इम्कान

याक़ूब राही

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अपनी ता'बीर के सहरा में
जले ख़्वाबों की

इस राख को तुम
राख के ढेर ही क्यूँ कहते हो

बढ़ के
उस राख के सीने में उतर कर

ढूँढो
उस का इम्कान है

तुम राख के उस ढेर में भी
चंद चिंगारियाँ रह रह के दमकती देखो

और शायद तुम को
फिर से जीने का बहाना मिल जाए