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ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो | शाही शायरी
zulmaton mein raushni ki justuju karte raho

ग़ज़ल

ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो

अनवर साबरी

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ज़ुल्मतों में रौशनी की जुस्तुजू करते रहो
ज़िंदगी भर ज़िंदगी की जुस्तुजू करते रहो

जिस पे हो साक़ी ब-ज़ोम-ए-होश-मंदी भी फ़िदा
उस मुकम्मल बे-ख़ुदी की जुस्तुजू करते रहो

बे-जुनूँ चलता नहीं है कार-ए-तामीर-ए-हयात
होश वालो आगही की जुस्तुजू करते रहो

आदमियत के सिवा जिस का कोई मक़्सद न हो
उम्र भर उस आदमी की जुस्तुजू करते रहो

शर्त-ए-इरफ़ान-ए-ख़ुदा 'अनवर' है ख़ुद अपनी तलाश
यूँ तो करने को किसी की जुस्तुजू करते रहो