ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
अभी मैं अपने हिजाबात में पड़ा हुआ हूँ
मुझे यक़ीं ही नहीं आ रहा कि ये मैं हूँ
अजब तवहहुम ओ शुबहात में पड़ा हुआ हूँ
गुज़र रही है मुझे रौंदती हुई दुनिया
क़दीम ओ कोहना रिवायात में पड़ा हुआ हूँ
बचाओ का कोई रस्ता नहीं बचा मुझ में
मैं अपने ख़ाना-ए-शह-मात में पड़ा हुआ हूँ
मैं अपने दिल पे बहुत ज़ुल्म करने वाला था
सो अब जहान-ए-मकाफ़ात में पड़ा हुआ हूँ
ग़ज़ल
ज़ुहूर-ए-कश्फ़-ओ-करामात में पड़ा हुआ हूँ
अंजुम सलीमी