ज़िंदगी रोज़ बनाती है बहाने क्या क्या
जाने रहते हैं अभी खेल दिखाने क्या क्या
सिर्फ़ आँखों की नमी ही तो नहीं मज़हर-ए-ग़म
कुछ तबस्सुम भी जता देते हैं जाने क्या क्या
खटकें इस आँख में तो धड़कें कभी उस दिल में
दर-ब-दर हो के भी अपने हैं ठिकाने क्या क्या
बोल पड़ता तो मिरी बात मिरी ही रहती
ख़ामुशी ने हैं दिए सब को फ़साने क्या क्या
शहर में रंग जमा गाँव में फ़सलें उजड़ीं
हश्र उठाया बिना मौसम की घटा ने क्या क्या
ख़्वाब ओ उम्मीद का हक़, आह का फ़रियाद का हक़
तुझ पे वार आए हैं ये तेरे दिवाने क्या क्या
ग़ज़ल
ज़िंदगी रोज़ बनाती है बहाने क्या क्या
अजमल सिद्दीक़ी