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ज़िंदगी को एक बहर-ए-बे-कराँ पाती हूँ मैं | शाही शायरी
zindagi ko ek bahr-e-be-karan pati hun main

ग़ज़ल

ज़िंदगी को एक बहर-ए-बे-कराँ पाती हूँ मैं

जमीला ख़ातून तस्नीम

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ज़िंदगी को एक बहर-ए-बे-कराँ पाती हूँ मैं
उन के हाथों मिट के उम्र-ए-जावेदाँ पाती हूँ मैं

ख़ुद-बख़ुद दिल हो गया दोनों जहाँ से बे-नियाज़
अब ज़मीन-ए-इश्क़ गोया आसमाँ पाती हूँ मैं

छुट-फुटे से दिल बुझा रहता है तेरी याद में
चाँदनी रातों में अश्कों को रवाँ पाती हूँ मैं

सैकड़ों सज्दे तड़पते हैं जबीन-ए-शौक़ में
ऐ हक़ीक़त तेरा नक़्श-ए-पा कहाँ पाती हूँ मैं

अब भी आँसू बह निकलते हैं किसी की याद में
अंदलीब-ए-ज़ार को जब नौहा-ख़्वाँ पाती हूँ मैं

अपना ऐ 'तसनीम' इस दुनिया से घबराता है दिल
याँ की हर शय को फ़क़त वहम-ओ-गुमाँ पाती हूँ मैं