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ज़िंदगी ख़त्म भी होने पे कसक बाक़ी है | शाही शायरी
zindagi KHatm bhi hone pe kasak baqi hai

ग़ज़ल

ज़िंदगी ख़त्म भी होने पे कसक बाक़ी है

ख़ालिद फ़तेहपुरी

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ज़िंदगी ख़त्म भी होने पे कसक बाक़ी है
उजड़े घर में तिरी साँसों की महक बाक़ी है

मेरे हमदम मुझे बेदाद से महरूम न कर
दामन-ए-रूह में ज़ख़्मों की तपक बाक़ी है

मुझ को दो चार घड़ी और भी जीने दीजे
सिसकियों की अभी ज़ख़्मों में सनक बाक़ी है

आस की शम्अ' पिघलने को है अब तो आ जा
रात बाक़ी है सितारों में चमक बाक़ी है

मैं किसी वादा-फ़रामोश का आईना हूँ
मेरी आँखों में अभी उस की झलक बाक़ी है

दिल-ए-ज़ख़्मी लिए बैठा हूँ अज़ीज़ान-किराम
आओ कुछ और छिड़क दो जो नमक बाक़ी है