EN اردو
ज़िंदगी हुस्न से ता'बीर भी हो सकती थी | शाही शायरी
zindagi husn se tabir bhi ho sakti thi

ग़ज़ल

ज़िंदगी हुस्न से ता'बीर भी हो सकती थी

राहिल बुख़ारी

;

ज़िंदगी हुस्न से ता'बीर भी हो सकती थी
चाँदनी दश्त पे तहरीर भी हो सकती थी

बे-बस जादा-ए-पुर-ख़ार पे लाई मुझ को
बेबसी पाँव की ज़ंजीर भी हो सकती थी

एक आवाज़-ए-तिलिस्मात में डूबी आवाज़
ऐसी आवाज़ कि तस्वीर भी हो सकती थी

एक साया पस-ए-दीवार भी लहराता था
सनसनी इतनी हमा-गीर भी हो सकती थी

भागते भागते सब रंग समेटे हम ने
वक़्त का फेर है ताख़ीर भी हो सकती थी