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ज़िंदगी अब रहे ख़ता कब तक | शाही शायरी
zindagi ab rahe KHata kab tak

ग़ज़ल

ज़िंदगी अब रहे ख़ता कब तक

हरी मेहता

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ज़िंदगी अब रहे ख़ता कब तक
जुर्म की बारहा सज़ा कब तक

नाख़ुदा हूँ मैं अपनी कश्ती का
ये ख़ुदाओं का सिलसिला कब तक

अपनी पथरा गई हैं आँखें भी
हुस्न पर्दा उठाएगा कब तक

कौन पकड़ेगा भागते साए
कौन देखेगा रास्ता कब तक

ग़ालिबन और शाहराहें हैं
एक ही बंद रास्ता कब तक

आदमी आदमी का दुश्मन है
जाने हो मेहरबाँ ख़ुदा कब तक

बे-सबब फिर रहे हैं मुद्दत से
कीजिए वक़्त का गिला कब तक

काम अपना 'हरी' परस्तिश है
बे-असर फिर रहे दुआ कब तक