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ज़िंदगानी रंज और ग़म के सिवा कुछ भी नहीं | शाही शायरी
zindagani ranj aur gham ke siwa kuchh bhi nahin

ग़ज़ल

ज़िंदगानी रंज और ग़म के सिवा कुछ भी नहीं

चन्द्रभान ख़याल

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ज़िंदगानी रंज और ग़म के सिवा कुछ भी नहीं
उफ़ कि हर-दम सोग-ओ-मातम के सिवा कुछ भी नहीं

रोज़-ओ-शब अपने गुज़र जाना दयार-ए-ग़ैर में
दास्तान-ए-अज़्म-ए-मोहकम के सिवा कुछ भी नहीं

कौन दहशत-गर्द है और कौन है दहशत-ज़दा
ये सब इक इबहाम-ए-पैहम के सिवा कुछ भी नहीं

गूँजती है ख़ामुशी हर-दम जो मेरे चार-सू
दर-हक़ीक़त शोर-ए-आलम के सिवा कुछ भी नहीं

तुम जिसे समझे हो दुनिया उस के आँचल के तले
गेसुओं के पेच और ख़म के सिवा कुछ भी नहीं

देखता रहता है बंदों पर मुसलसल सख़्तियाँ
क्या ख़ुदा इक इस्म-ए-आज़म के सिवा कुछ भी नहीं

देवता सी फ़िक्र और तर्ज़-ए-अमल के बावजूद
आदमी बस इब्न-ए-आदम के सिवा कुछ भी नहीं