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ज़िंदा रहने का भरम आ के कहाँ पर टूटा | शाही शायरी
zinda rahne ka bharam aa ke kahan par TuTa

ग़ज़ल

ज़िंदा रहने का भरम आ के कहाँ पर टूटा

कलीम हैदर शरर

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ज़िंदा रहने का भरम आ के कहाँ पर टूटा
इक सितारा सा मिरी शह-रग-ए-जाँ पर टूटा

ग़ैर-मुमकिन है मिरी ख़ाक उड़ाता कोई
मैं कि ख़ुद अपनी तबाही के निशाँ पर टूटा

सूद-दर-सूद मुरव्वत मिरी काम आई है
जब मैं इख़्लास की मीज़ान-ए-ज़ियाँ पर टूटा

ज़हर सा फैल चुका है मिरी शिरयानों में
कौन सा हर्फ़ मिरी नोक-ए-ज़बाँ पर टूटा

सिसकियाँ भर के 'शरर' कौन वहाँ रोता था
ख़ेमा-ए-ख़्वाब सर-ए-शाम जहाँ पर टूटा