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ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में | शाही शायरी
zehn pareshan ho jata hai aur bhi kuchh tanhai mein

ग़ज़ल

ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में

ज़ुबैर अमरोहवी

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ज़ेहन परेशाँ हो जाता है और भी कुछ तन्हाई में
ताज़ा हो जाती हैं चोटें सब जैसे पुरवाई में

उस को तो जाना था लेकिन मेरा क्यूँ ये हाल हुआ
अँगनाई से कमरे में और कमरे से अँगनाई में

उस के दिल का भेद उसी की आँखों से मिल सकता था
किस में हिम्मत है जो उतरे झीलों की गहराई में

एक ही घर के रहने वाले एक ही आँगन एक ही द्वार
जाने क्यूँ बढ़ती जाती है नफ़रत भाई भाई में

नूर बसीरत का बख़्शा कल तक मैं ने जिन को 'ज़ुबैर'
फ़र्क़ नज़र आता है उन को अब मेरी बीनाई में