EN اردو
ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे | शाही शायरी
zehn o dil ke fasle the hum jinhen sahte rahe

ग़ज़ल

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे

इफ़्फ़त ज़र्रीं

;

ज़ेहन ओ दिल के फ़ासले थे हम जिन्हें सहते रहे
एक ही घर में बहुत से अजनबी रहते रहे

दूर तक साहिल पे दिल के आबलों का अक्स था
कश्तियाँ शोलों की दरिया मोम के बहते रहे

कैसे पहुँचे मंज़िलों तक वहशतों के क़ाफ़िले
हम सराबों से सफ़र की दास्ताँ कहते रहे

आने वाले मौसमों को ताज़गी मिलती गई
अपनी फ़स्ल-ए-आरज़ू को हम ख़िज़ाँ कहते रहे

कैसे मिट पाएँगी 'ज़र्रीं' ये हदें अफ़्कार की
टूट कर दिल के किनारे दूर तक बहते रहे