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ज़ेहन में कुछ क़यास रहता है | शाही शायरी
zehn mein kuchh qayas rahta hai

ग़ज़ल

ज़ेहन में कुछ क़यास रहता है

साबिर शाह साबिर

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ज़ेहन में कुछ क़यास रहता है
निस्फ़ ख़ाली गिलास रहता है

हर तरफ़ रंग-ओ-नूर है फिर भी
शहर क्यूँ कर उदास रहता है

मुफ़्लिसी में भी हाथ फैलाएँ
कुछ तो इज़्ज़त का पास रहता है

अम्न का क़त्ल हो गया जब से
शहर अब बद-हवास रहता है

तेज़ रफ़्तार ज़िंदगानी में
हादिसा आस-पास रहता है

दौर पत्थर का फिर से लौट आया
अब जहाँ बे-लिबास रहता है

हम फ़क़ीरों का तर्ज़ है 'साबिर'
तन पे सादा लिबास रहता है