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ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया | शाही शायरी
zehn mein kaun se aaseb ka Dar bandh liya

ग़ज़ल

ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया

क़ैसर-उल जाफ़री

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ज़ेहन में कौन से आसेब का डर बाँध लिया
तुम ने पूछा भी नहीं रख़्त-ए-सफ़र बाँध लिया

बे-मकानी की भी तहज़ीब हुआ करती है
उन परिंदों ने भी एक एक शजर बाँध लिया

रास्ते में कहीं गिर जाए तो मजबूरी है
मैं ने दामान-ए-दरीदा में हुनर बाँध लिया

अपने दामन पे नज़र कर मिरे हाथों पे न जा
मैं ने पथराओ किया तू ने समर बाँध लिया

घर खुला छोड़ के चुपके से निकल जाऊँगा
शाम ही से सर-ओ-सामान-ए-सहर बाँध लिया

उम्र भर मैं ने भी साहिल के क़सीदे लिक्खे
मेरे बच्चों ने भी इक रेत का घर बाँध लिया

हार बेदर्द हवाओं से न मानी 'क़ैसर'
बादबाँ फेंक के क़दमों से भँवर बाँध लिया