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ज़ेहन में और कोई डर नहीं रहने देता | शाही शायरी
zehn mein aur koi Dar nahin rahne deta

ग़ज़ल

ज़ेहन में और कोई डर नहीं रहने देता

द्विजेंद्र द्विज

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ज़ेहन में और कोई डर नहीं रहने देता
शोर अंदर का हमें घर नहीं रहने देता

कोई ख़ुद्दार बचा ले तो बचा ले वर्ना
पेट काँधों पे कोई सर नहीं रहने देता

आसमाँ भी वो दिखाता है परिंदों को नए
हाँ मगर उन पे कोई पर नहीं रहने देता

ख़ुश्क आँखों में उतर आता है बादल बन कर
दर्द एहसास को बंजर नहीं रहने देता

एक पोरस भी तो रहता है हमारे अंदर
जो सिकंदर को सिकंदर नहीं रहने देता

उन में इक रेत के दरिया सा ठहर जाता है
ख़ौफ़ आँखों में समुंदर नहीं रहने देता

हादसों का है धुँदलका सा 'द्विज' आँखों में
ख़ूबसूरत कोई मंज़र नहीं रहने देता