ज़रा सी रात और इतना सवाब काफ़ी है
मिरी नज़र को फ़क़त तेरा ख़्वाब काफ़ी है
मैं चाहती नहीं मुझ को वरक़ वरक़ लिख दे
सर-वरक़ है जो इक इंतिसाब काफ़ी है
मैं क्या करूँगी ये इतनी कहानियाँ ले कर
मिरे लिए तो फ़क़त इक किताब काफ़ी है
मैं अपनी प्यास को महसूस कर के जीती हूँ
समुंदरों की तलब क्या सराब काफ़ी है
मैं तुझ से मिलती हूँ 'फ़रहत' तो ख़ौफ़ आता है
कि मुझ पे तेरा पुराना हिसाब काफ़ी है
नहीं हैं लफ़्ज़ मयस्सर तो फिर तअस्सुर भेज
किसी भी शक्ल में हो इक जवाब काफ़ी है
ख़याल-ए-यार कहाँ है कोई बताए उसे
मिरे लिए वही ख़ाना-ख़राब काफ़ी है
ग़ज़ल
ज़रा सी रात और इतना सवाब काफ़ी है
फ़रहत नादिर रिज़्वी