ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
मैं जी उठा हूँ ज़रा ताज़गी के आने से
उदास हो गए इक पल में शादमाँ चेहरे
मिरे लबों पे ज़रा सी हँसी के आने से
दुखों के यार बिछड़ने लगे हैं अब मुझ से
ये सानेहा भी हुआ है ख़ुशी के आने से
करख़्त होने लगे हैं बुझे हुए लहजे
मिरे मिज़ाज में शाइस्तगी के आने से
बहुत सुकून से रहते थे हम अँधेरे में
फ़साद पैदा हुआ रौशनी के आने से
यक़ीन होता नहीं शहर-ए-दिल अचानक यूँ
बदल गया है किसी अजनबी के आने से
मैं रोते रोते अचानक ही हँस पड़ा 'आलम'
तमाश-बीनों में संजीदगी के आने से
ग़ज़ल
ज़रा सी धूप ज़रा सी नमी के आने से
आलम ख़ुर्शीद