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ज़रा सा इम्कान किस क़दर था | शाही शायरी
zara sa imkan kis qadar tha

ग़ज़ल

ज़रा सा इम्कान किस क़दर था

राजेन्द्र मनचंदा बानी

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ज़रा सा इम्कान किस क़दर था
फ़ज़ा में हैजान किस क़दर था

मैं किस क़दर था क़रीब उस के
वो मेरी पहचान किस क़दर था

लिबास पर था ज़रा सा इक दाग़
बदन परेशान किस क़दर था

यही कि उस से कभी न टूटे
हमें कि इक ध्यान किस क़दर था

न जाने क्या लोग बिछड़े होंगे
वो मोड़ सुनसान किस क़दर था

वो सारे ग़म क्या हुए ख़ुदाया
ये दिल कि गुंजान किस क़दर था

बहाल हो जाएँ फिर वो रिश्ते
उसे भी अरमान किस क़दर था

भटक गए कितने लोग 'बानी'
नए का रुज्हान किस क़दर था