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ज़रा ग़म-ज़दों के भी ग़म-ख़्वार रहना | शाही शायरी
zara gham-zadon ke bhi gham-KHwar rahna

ग़ज़ल

ज़रा ग़म-ज़दों के भी ग़म-ख़्वार रहना

इस्माइल मेरठी

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ज़रा ग़म-ज़दों के भी ग़म-ख़्वार रहना
करें नाज़ तो नाज़-बरदार रहना

फ़राख़ी-ओ-उसरत में शादी-ओ-ग़म में
बहर-हाल यारों के तुम यार रहना

समझ नर्दबाँ अपनी नाकामियों को
कि है शर्त-ए-हिम्मत तलबगार रहना

करो शुक्र है ये इनायत ख़ुदा की
बलाओं में अक्सर गिरफ़्तार रहना

अगर आदमी को न हो मश्ग़ला कुछ
बहिश्त-ए-बरीँ में हो दुश्वार रहना

ख़बर भी है आदम से जन्नत छुट्टी क्यूँ
ख़िलाफ़-ए-जिबिल्लत था बे-कार रहना

समझते हैं शेरों को भी नर्म चारा
ग़ज़ालान-ए-शहरी से होश्यार रहना