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ज़मीनें जल रहीं हैं और शजर सैराब हैं सारे | शाही शायरी
zaminen jal rahin hain aur shajar sairab hain sare

ग़ज़ल

ज़मीनें जल रहीं हैं और शजर सैराब हैं सारे

मुईन नजमी

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ज़मीनें जल रहीं हैं और शजर सैराब हैं सारे
मनाज़िर इस नगर के किस क़दर शादाब हैं सारे

धुएँ में साँस लेती टहनियों पर चहचहाते हैं
परिंदे मुख़्तलिफ़ रंगो के जो नायाब हैं सारे

कहीं सूरज भी क़ैदी है किसी तारीक ज़िंदाँ में
कहीं ज़र्रे भी ताबाँ सूरत-ए-महताब हैं सारे

यहाँ आसेब की तहवील में है नींद की देवी
यहाँ के लोग ख़्वाबों के लिए बेताब हैं सारे

दिलों में एक दुख सा है घरों में कुछ न होने का
मुहय्या सारी बस्ती को मगर अस्बाब हैं सारे