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ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से | शाही शायरी
zaKHmi hun tere nawak-e-duz-dida-nazar se

ग़ज़ल

ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से

शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

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ज़ख़्मी हूँ तिरे नावक-ए-दुज़-दीदा-नज़र से
जाने का नहीं चोर मिरे ज़ख़्म-ए-जिगर से

हम ख़ूब हैं वाक़िफ़ तिरे अंदाज़-ए-कमर से
ये तार निकलता है कोई दिल के गुहर से

फिर आए अगर जीते वो का'बे के सफ़र से
तो जानो फिरे शैख़-जी अल्लाह के घर से

सरमाया-ए-उम्मीद है क्या पास हमारे
इक आह है सीने में सो न-उम्मीद असर से

वो ख़ुल्क़ से पेश आते हैं जो फ़ैज़-रसाँ हैं
हैं शाख़-ए-समर-दार में गुल पहले समर से

हाज़िर हैं मिरे जज़्बा-ए-वहशत के जिलौ में
बाँधे हुए कोहसार भी दामन को कमर से

लबरेज़ मय-ए-साफ़ से हों जाम-ए-बिलोरीं
ज़मज़म से है मतलब न सफ़ा से न हजर से

अश्कों में बहे जाते हैं हम सू-ए-दर-ए-यार
मक़्सूद रह-ए-का'बा है दरिया के सफ़र से

फ़रियाद-ए-सितम-कश है वो शमशीर-ए-कशीदा
जिस का न रुके वार फ़लक की भी सिपर से

खुलता नहीं दिल बंद ही रहता है हमेशा
क्या जाने कि आ जाए है तू इस में किधर से

उफ़ गर्मी-ए-वहशत कि मिरी ठोकरों ही में
पत्थर हैं पहाड़ों के उड़े जाते शरर से

कुछ रहमत-ए-बारी से नहीं दूर कि साक़ी
रोएँ जो ज़रा मस्त तो मय अब्र से बरसे

मैं कुश्ता हूँ किस चश्म-ए-सियह-मस्त का या रब
टपके है जो मस्ती मिरी तुर्बत के शजर से

नालों के असर से मिरे फोड़ा सा है पकता
क्यूँ रीम सदा निकले न आहन के जिगर से

ऐ 'ज़ौक़' किसी हमदम-ए-देरीना का मिलना
बेहतर है मुलाक़ात-ए-मसीहा-ओ-ख़िज़र से