ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
इतने सादा भी नहीं हम कि न इतना समझें
ज़ख़्म का अपने मुदावा किसे मंज़ूर नहीं
हाँ मगर क्यूँ किसी क़ातिल को मसीहा समझें
शो'बदा-बाज़ी किसी की न चलेगी हम पर
तंज़ ओ दुश्नाम को कहते हो लतीफ़ा समझें
ख़ुद पे ये ज़ुल्म गवारा नहीं होगा हम से
हम तो शो'लों से न गुज़़रेंगे न सीता समझें
छोड़िए पैरों में क्या लकड़ियाँ बाँधे फिरना
अपने क़द से मिरा क़द शौक़ से छोटा समझें
कोई अच्छा है तो अच्छा ही कहेंगे हम भी
लोग भी क्या हैं ज़रा देखिए क्या क्या समझें
हम तो बेगाने से ख़ुद को भी मिले हैं 'बिल्क़ीस'
किस तवक़्क़ो' पे किसी शख़्स को अपना समझें
ग़ज़ल
ज़ख़्म को फूल कहें नौहे को नग़्मा समझें
बिलक़ीस ज़फ़ीरुल हसन