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ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया | शाही शायरी
zaKHm-e-furqat ko teri yaad ne bharne na diya

ग़ज़ल

ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया

अशहद बिलाल इब्न-ए-चमन

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ज़ख़्म-ए-फ़ुर्क़त को तिरी याद ने भरने न दिया
ग़म-ए-तंहाई मगर रुख़ पे उभरने न दिया

आज भी नक़्श हैं दिल पर तिरी आहट के निशाँ
हम ने उस राह से औरों को गुज़रने न दिया

तू ने जिस रोज़ से छोड़ा इसे ख़ाली रक्खा
मैं ने ख़ुशियों को भी इस दिल में ठहरने न दिया

रब्त जो तुझ से बनाया सो बनाए रक्खा
तू ही क्या तेरा तसव्वुर भी बिखरने न दिया

ज़ब्त इतना कि चराग़ों से हुए महव-ए-कलाम
याद इतनी कि तुझे दिल से उतरने न दिया

आइने तोड़ दिए जो भी नज़र से गुज़रे
किसी मह-रू को तिरे बअ'द सँवरने न दिया