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ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है | शाही शायरी
zabt ki koshish hai jaan-e-na-tawan mushkil mein hai

ग़ज़ल

ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है

वहशत रज़ा अली कलकत्वी

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ज़ब्त की कोशिश है जान-ए-ना-तवाँ मुश्किल में है
क्यूँ अयाँ हो आँख से वो ग़म जो पिन्हाँ दिल में है

जिस से चाहो पूछ लो तुम मेरे सोज़-ए-दिल का हाल
शम्अ' भी महफ़िल में है परवाना भी महफ़िल में है

इश्क़-ए-ग़ारत-गर ने शह दी हुस्न-ए-आफ़त-ख़ेज़ को
शौक़-ए-बिस्मिल ही से कस-बल बाज़ू-ए-क़ातिल में है

कुछ समझ कर ही हुआ हूँ मौज-ए-दरिया का हरीफ़
वर्ना मैं भी जानता हूँ आफ़ियत साहिल में है

ख़ुद तुझे आ जाएगा आशिक़-नवाज़ी का ख़याल
तेरा रहरव क्यूँ ख़याल-ए-दूरी-ए-मंज़िल में है

मुद्दआ-ए-इश्क़ मेरा कुछ नहीं जुज़ ज़ौक़-ए-इश्क़
हुस्न को हैरत कि ये किस सई-ए-बे-हासिल में है

अपनी शान-ए-बे-नियाज़ी पर तुम्हें क्या क्या हैं नाज़
काश तुम उस शौक़ को जानो जो मेरे दिल में है