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ज़बाँ पे ख़ुद-बख़ुद अर्ज़-ए-मोहब्बत आई जाती है | शाही शायरी
zaban pe KHud-baKHud arz-e-mohabbat aai jati hai

ग़ज़ल

ज़बाँ पे ख़ुद-बख़ुद अर्ज़-ए-मोहब्बत आई जाती है

मुश्ताक़ नक़वी

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ज़बाँ पे ख़ुद-बख़ुद अर्ज़-ए-मोहब्बत आई जाती है
खुले पड़ते हैं अरमाँ ज़िंदगी शर्माई जाती है

बुलावे आ रहे हैं मंज़िलों के शाम से लेकिन
तमन्नाओं को इन की गोद में नींद आई जाती है

वो आए हैं तसल्ली के लिए लेकिन ये आलम है
निगाहें नम हैं लौ आवाज़ की थर्राई जाती है

दिमाग़-ओ-दिल की सारी कश्मकश बेकार-ओ-ला-हासिल
नशे की तरह उस की याद सब पर छाई जाती है

नहीं कुछ तेरे बाइस ये उदासी बद-गुमाँ मत हो
जहाँ जाता हूँ मेरे साथ ये तन्हाई जाती है