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ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ | शाही शायरी
zaban-e-KHalq pe aaya to ek fasana hua

ग़ज़ल

ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ

वहीद अख़्तर

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ज़बान-ए-ख़ल्क़ पे आया तो इक फ़साना हुआ
वो लफ़्ज़ सौत ओ सदा से जो आश्ना न हुआ

बला-ए-जाँ भी है जाँ-बख़्श भी है इश्क़-ए-बुताँ
अजल को उज़्र मिला ज़ीस्त को बहाना हुआ

तिरी निगाह किरन थी तो मेरा दिल शबनम
तिरी निगह से भी दिल का मोआमला न हुआ

ब-सद-ख़ुलूस रहा साथ ज़िंदगी भर का
मुक़ाबला भी ज़माने से दोस्ताना हुआ

सुना है बज़्म में तेरी है तज़्किरा मेरा
तिरी वफ़ा का तआरुफ़ भी ग़ाएबाना हुआ

हम ऐसे खो गए आग़ाज़ में ख़बर ही नहीं
कि बज़्म उठ गई कब ख़त्म कब फ़साना हुआ

हर एक लम्हा किया क़र्ज़ ज़िंदगी का अदा
कुछ अपना हक़ भी था हम पर वही अदा न हुआ