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ज़ात की दीवार बीचों-बीच इक दर वा हुआ | शाही शायरी
zat ki diwar bichon-bich ek dar wa hua

ग़ज़ल

ज़ात की दीवार बीचों-बीच इक दर वा हुआ

सीमाब ज़फ़र

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ज़ात की दीवार बीचों-बीच इक दर वा हुआ
आख़िरी लम्हों में गर हो भी गया तो क्या हुआ

रक़्स में मदहोश ग़ौग़ा-ए-सुरूद-ओ-लै में गुम
कौन है ये शिद्दत-ए-आज़ार से हँसता हुआ

तेरी मेरी आँख की मिट्टी हमेशा नम रहे
हो अबद से भी परे रुख़्सत का पुल फैला हुआ

बा'द अज़ यक साअत ख़ामोश मातम ख़त्म शुद
क्यूँ किसी के सोग में रुकता ज़माँ चलता हुआ

मेरे शानों पर रिदा-ए-आबरू-ए-इश्क़ है
बारिश-ए-नामूस-ए-उल्फ़त में है दिल भीगा हुआ

वो रुका रुक कर मुड़ा मुड़ कर मिरी जानिब झुका
उम्र का दरिया वहीं थम सा गया बहता हुआ

मेरी पेशानी पे दाएँ हाथ की अंगुश्त से
एक ख़ुश-क़ामत ने अपना नाम है लिक्खा हुआ