यूँ तो कहने को हम अदू भी नहीं
हाँ मगर उस से गुफ़्तुगू भी नहीं
वो तो ख़्वाबों का शाहज़ादा था
अब मगर उस की जुस्तुजू भी नहीं
वो जो इक आईना सा लगता है
सच तो ये है कि रू-ब-रू भी नहीं
एक मुद्दत में ये हुआ मालूम
मैं वहाँ हूँ जहाँ कि तू भी नहीं
एक बार उस से मिल तो लो 'सरवत'
है मगर इतना तुंद-ख़ू भी नहीं

ग़ज़ल
यूँ तो कहने को हम अदू भी नहीं
नूर जहाँ सरवत