यूँ तो देखी हैं मिरे यार सभी की आँखें
उस की आँखों सी कहाँ और किसी की आँखें
वो तो पर्बत की बुलंदी को भुला बैठी है
गुम हैं यूँ तेरे उभारों में नदी की आँखें
उस की गर्दन के सभी तौक़ उतर जाते हैं
जिस पे उठ जाती हैं इक बार वली की आँखें
बस तिरी राह में लुटने को तुले बैठे हैं
किसी लम्हे का बदन हो कि सदी की आँखें
हिज्र का वक़्त बताती है हमेशा 'नोमान'
देखता हूँ मैं जो हर बार घड़ी की आँखें

ग़ज़ल
यूँ तो देखी हैं मिरे यार सभी की आँखें
नोमान फ़ारूक़