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यूँ सितम ढाए गए हैं तिरे दीवाने पर | शाही शायरी
yun sitam Dhae gae hain tere diwane par

ग़ज़ल

यूँ सितम ढाए गए हैं तिरे दीवाने पर

क़मर अब्बास क़मर

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यूँ सितम ढाए गए हैं तिरे दीवाने पर
ज़ख़्म ख़ुद गिर्या-कुनाँ है मिरे अफ़्साने पर

मुझ को यकसर ही अलग रहना पड़ा है तुम से
ऐसा होता है कहीं इश्क़ के मर जाने पर

पहले यक-लख़्त चले आते थे मिलने के लिए
अब तवज्जोह भी नहीं है मिरे चिल्लाने पर

सोज़िश-ए-ग़म का चराग़ों को कहाँ अंदाज़ा
रात चीख़ उठती है जलते हुए परवाने पर

मैं समझता था मिरा दिल है मिरी मानेगा
उसी काफ़िर का हुआ जाता है समझाने पर

दर्द-ए-फ़ुर्क़त ही मिरी मौत का सामाँ है 'क़मर'
दिल किसी तौर बहलता नहीं बहलाने पर