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यूँ लोग चौंक चौंक कर उँगली उठाए हैं | शाही शायरी
yun log chaunk chaunk kar ungli uThae hain

ग़ज़ल

यूँ लोग चौंक चौंक कर उँगली उठाए हैं

नाज़िश प्रतापगढ़ी

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यूँ लोग चौंक चौंक कर उँगली उठाए हैं
जैसे हम आज पहले-पहल मुस्कुराए हैं

अक्सर खुली फ़ज़ाओं में भी सनसनाए हैं
हम पर हमारे घर ने वो पत्थर चलाए हैं

ऐ मौज-ए-गुल इधर का अभी रुख़ न कीजियो
कुछ लोग ताज़ा ताज़ा बयाबाँ में आए हैं

महरूमियों के ज़हर से हम कब के मर चुके
ये तो अब अपने जिस्म का लाशा उठाए हैं

हाँ हम को ए'तिराफ़ है इस का कि ज़ीस्त को
आदाब हम ने जुर्म-ए-वफ़ा के सिखाए हैं

दौड़े हैं लोग संग-ए-तग़ाफ़ुल लिए हुए
हम जब भी अपने शहर के नज़दीक आए हैं

फ़ुर्सत कहाँ नसीब क़याम-ओ-क़रार की
हम लोग वक़्त-ए-शाम दरख़्तों के साए हैं

इस दर्जा भीड़ इतनी घुटन है कि अल-अमाँ
यादों का शहर छोड़ के हम भाग आए हैं

वीराना-ए-ख़याल की वहशत न कम हुई
हालाँकि बात बात पे हम मुस्कुराए हैं

चेहरे पे पड़ रही है तिरी बे-रुख़ी की धूप
सीने में हर तरफ़ तिरी यादों के साए हैं

रफ़्तार-ए-ज़िंदगी है कि माँगे है बिजलियाँ
हम हैं कि बे-हिसी को गले से लगाए हैं

यारों को हाल वादी-ए-ग़ुर्बत का क्या लिखें
महसूस हो रहा है हम अपने घर आए हैं

ज़ब्त-ए-ग़म-ए-हयात भी जिन को न पी सका
'नाज़िश' वो अश्क हम ने ग़ज़ल में छुपाए हैं