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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया | शाही शायरी
yun ehtimam-e-radd-e-sahar kar diya gaya

ग़ज़ल

यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया

सत्तार सय्यद

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यूँ एहतिमाम-ए-रद्द-ए-सहर कर दिया गया
हर रौशनी को शहर-बदर कर दिया गया

अपने घरों के सुख से भी रू-कश दिखाई दें
लोगों को मुब्तला-ए-सफ़र कर दिया गया

जीना हर एक के लिए मुमकिन नहीं रहा
जीने को एक कार-ए-हुनर कर दिया गया

चेहरों से रंग हाथ से आईने छीन कर
बे-चेहरगी को रख़्त-ए-नज़र कर दिया गया

अब जिस्म-ओ-जाँ पे हक़्क़-ए-तसर्रुफ़ तलब करे
ज़ालिम को इस क़दर तो निडर कर दिया गया

दरपय थे हर शजर के तअफ़्फ़ुन-शिआर लोग
महरूम ख़ुशबुओं से नगर कर दिया गया

वो क़हत-ए-ग़म पड़ा है कि इक टीस के लिए
अहल-ए-करम का दस्त-ए-निगर कर दिया गया