यूँ चुप है शहर जैसे कि कुछ भी हुआ न हो
शायद अब इस के बा'द कोई हादिसा न हो
काँपा है बर्ग बर्ग सा जो बे-सबब अभी
ये जिस्म आँधियों का कोई रास्ता न हो
मैं थक चुका हूँ दश्त-ए-मसाफ़त की धूप में
कोई सराब राह मरी देखता न हो
तुग़्यान-ए-बेवफ़ाई में डूबा रहूँ मैं काश
मेरे नसीब में तुझे अब देखना न हो
उभरी है ख़ुश्क पत्तों में इक चीख़ दूर तक
बे-रहम कोई पाँव उन्हें रौंदता न हो
शम-ए-तरफ़ जलाने से पहले ही देख लो
ये दश्त-ए-ना-मुरादी-ए-दिल का दिया न हो
जो शख़्स कल मिला था 'मुसव्विर' ब-तर्ज़-ए-ख़ास
उस की ही शक्ल का वो कोई दूसरा न हो
ग़ज़ल
यूँ चुप है शहर जैसे कि कुछ भी हुआ न हो
मुसव्विर सब्ज़वारी