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यूँ अश्क बरसते हैं मिरे दीदा-ए-तर से | शाही शायरी
yun ashk baraste hain mere dida-e-tar se

ग़ज़ल

यूँ अश्क बरसते हैं मिरे दीदा-ए-तर से

अब्दुल रहमान ख़ान वासिफ़ी बहराईची

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यूँ अश्क बरसते हैं मिरे दीदा-ए-तर से
जिस तरह से सावन की घटा झूम के बरसे

हाँ अश्क-ए-नदामत जो गिरे दीदा-ए-तर से
वो दामन-ए-इस्याँ पे नज़र आए गुहर से

माहौल तो बदला है मिरी जेहद ने अक्सर
हाँ मैं नहीं बदला कभी माहौल के डर से

दुनिया न कहीं मुझ को निगाहों से गिरा दे
अब इतना गिरा दो न मुझे अपनी नज़र से

देखे जो कोई सादा-मिज़ाजी तो ये समझे
वाक़िफ़ ही नहीं आप किसी ऐब-ओ-हुनर से

जिस राह में गुज़री है मिरे सर पे क़यामत
सौ बार तो गुज़रा हूँ उसी राहगुज़र से

इस वक़्त जो गुज़री है न पूछो उसे 'वसफ़ी'
टकराई है जब उन की नज़र मेरी नज़र से