ये ज़िंदगी तो मुसलसल सवाल करती है
मगर जवाब वही ख़ामुशी ठहरती है
तिरे ख़याल के साहिल से देखती हूँ मैं
तिरी ही शक्ल हर इक मौज से उभरती है
किसी रक़ीब से मिलती है जब ख़बर तेरी
तुझे पता है मिरे दिल पे क्या गुज़रती है
गली गली में मिलेंगे ग़ज़ल के दीवाने
मगर ये शोख़ बहुत कम किसी पे मरती है
मैं सहर में तिरी बातों के खोई रहती हूँ
किसी की बात मिरे दिल में कब उतरती है
ज़रा सी देर को रुकता तो है सफ़र लेकिन
किसी के जाने से कब ज़िंदगी ठहरती है
गँवा के ख़ुद को भी पाया न मैं ने कुछ 'रख़्शाँ'
कभी कभी यही ला-हासिली अखरती है

ग़ज़ल
ये ज़िंदगी तो मुसलसल सवाल करती है
रख़शां हाशमी