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ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में | शाही शायरी
ye zaKHm zaKHm badan aur nam fazaon mein

ग़ज़ल

ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में

राम अवतार गुप्ता मुज़्तर

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ये ज़ख़्म ज़ख़्म बदन और नम फ़ज़ाओं में
भटक रहा हूँ लिए इज़्तिराब पाँव में

ये बे-लिहाज़ निगाहें ये अजनबी चेहरे
पनप रहा है कोई शहर जैसे गाँव में

बचा के मौत से इंसान ख़ुद को रख लेता
जो घुंघरू होते कहीं हादसों के पाँव में

ये एक रोज़ हमारा वजूद डस लेगा
उगल रहे हैं जो ये ज़हर हम हवाओं में

हर एक पल मरे हम फिर भी ज़िंदगी चाही
ग़ज़ब कशिश रही कम-बख़्त की अदाओं में

वो घर बना के बहारों का लुत्फ़ लेते हैं
जो तिनका तिनका जम'अ करते हैं ख़िज़ाओं में