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ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं | शाही शायरी
ye sanam riwayat-o-naql ke hubal-o-manat se kam nahin

ग़ज़ल

ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं

अख़्तर अंसारी

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ये सनम रिवायत-ओ-नक़्ल के हुबल-ओ-मनात से कम नहीं
तेरा फ़िक्र वाइ'ज़-ए-हक़-नवा किसी सोमनात से कम नहीं

कहीं बर्क़ चमके मैं जल उठूँ कोई तारा टूटे मैं रो पड़ूँ
ये दिल-ए-सितम-ज़दा हम-नशीं दिल-ए-काएनात से कम नहीं

कहीं रंग-ओ-नूर-ए-जमाल है कहीं बीम-ओ-फ़िक्र-ए-मआल है
कहीं शाम ग़ैरत-ए-सुब्ह है कहीं दिन भी रात से कम नहीं

जिसे कहिए रक़्स-ए-शरार-ए-ग़म वो अगर हो शामिल-ए-ग़म तो फिर
ग़म-ए-दिल हो या ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-काएनात से कम नहीं

ये सुरूर 'अख़्तर'-ए-दिल-ज़दा रजज़-ए-बहार-ओ-शबाब है
ये बुलंद होती हुई फ़ुग़ाँ अलम-ए-हयात से कम नहीं