ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें
यूँही कब तलक ख़ुदाया ग़म-ए-ज़िंदगी निबाहें
कहीं ज़ुल्मतों में घिर कर है तलाश-ए-दश्त-ए-रहबर
कहीं जगमगा उठी हैं मिरे नक़्श-ए-पा से राहें
तिरे ख़ानुमाँ-ख़राबों का चमन कोई न सहरा
ये जहाँ भी बैठ जाएँ वहीं इन की बारगाहें
कभी जादा-ए-तलब से जो फिरा हूँ दिल-शिकस्ता
तिरी आरज़ू ने हँस कर वहीं डाल दी हैं बाँहें
मिरे अहद में नहीं है ये निशान-ए-सरबुलंदी
ये रंगे हुए अमामे ये झुकी झुकी कुलाहें
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ग़ज़ल
ये रुके रुके से आँसू ये दबी दबी सी आहें
मजरूह सुल्तानपुरी