ये क़िस्सा-ए-मुख़्तसर नहीं है
तफ़्सील-तलब मगर नहीं है
तुम अपने दिए जलाए रक्खो
इमकान-ए-सहर अगर नहीं है
तू मेरे दिल में झाँकता है
तेरी इतनी नज़र नहीं है
जो लोग दिखाई दे रहे हैं
काँधों पे किसी के सर नहीं है
अब यूँ ही देखता हूँ रस्ता
मंज़िल पेश-ए-नज़र नहीं है
ये सोच के की दुआ मुअख़्ख़र
दीवार में कोई दर नहीं है
बे-घर हूँ मैं 'इम्तियाज़' जब से
अंदेशा-ए-बाम-ओ-दर नहीं है
ग़ज़ल
ये क़िस्सा-ए-मुख़्तसर नहीं है
इम्तियाज़-उल-हक़ इम्तियाज़