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ये नशिस्त-ए-ग़म है इस की कोई रीत तो निभाओ | शाही शायरी
ye nashist-e-gham hai isko koi rit to nibhao

ग़ज़ल

ये नशिस्त-ए-ग़म है इस की कोई रीत तो निभाओ

कान्ती मोहन सोज़

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ये नशिस्त-ए-ग़म है इस की कोई रीत तो निभाओ
मैं ग़ज़ल सुना रहा हूँ मुझे छोड़ कर न जाओ

शब-ए-तार का फ़साना कभी मुख़्तसर भी होगा
कोई शम्अ तो जलाओ कोई जाम तो उठाओ

ये ग़ुरूर-ए-तेग़-ए-क़ातिल कभी सर-निगूँ भी होगा
सर-ए-बज़्म चोट खा कर सर-ए-राह मुस्कुराओ

तुम्हें सर-बुलंद पा कर चली जाए सर झुका कर
कभी मर्ग-ए-ना-गहाँ से ज़रा यूँ भी पेश आओ

ज़रा देखो गर्दनों पर सर-ए-शाम झुक चले हैं
ये कँवल हैं कितने प्यारे इन्हें दार पर सजाओ

उसे खींच लो पलंग से वो जो सो के थक गया है
ये जो थक के सो गया है उसे प्यार से जगाओ

रहा सर हमेशा ताने सहे हँस के ताज़ियाने
वो गुरेज़-पा हुआ क्यूँ कोई 'सोज़' को मनाओ