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ये नहीं कि वो करम पर्वरी करता ही नहीं | शाही शायरी
ye nahin ki wo karam parwari karta hi nahin

ग़ज़ल

ये नहीं कि वो करम पर्वरी करता ही नहीं

शाह नवाज़ ज़ैदी

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ये नहीं कि वो करम पर्वरी करता ही नहीं
दिल वो टूटा हुआ बर्तन है कि भरता ही नहीं

एक उलझन है कि बढ़ती ही चली जाती है
इक तमाशा है कि आँखों से उतरता ही नहीं

इक तिरे हिज्र की मीआ'द कि काटे न कटे
इक तिरे वस्ल का लम्हा कि ठहरता ही नहीं

दोस्तो लाओ कोई कश्ती-ए-नूह-ए-उम्मीद
अब के पानी वो चढ़ा है कि उतरता ही नहीं

अश्क-ए-ख़ून-ए-दिल-ए-वहशी दबे पाँव वाला
इक मुसाफ़िर है कि पलकों से गुज़रता ही नहीं

उम्र-भर देते रहे हैं तुझे तावान-ए-वफ़ा
सूद-दर-सूद तिरा क़र्ज़ उतरता ही नहीं