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ये क्या कि मेरे यक़ीं में ज़रा गुमाँ भी है | शाही शायरी
ye kya ki mere yaqin mein zara guman bhi hai

ग़ज़ल

ये क्या कि मेरे यक़ीं में ज़रा गुमाँ भी है

शफ़क़ सुपुरी

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ये क्या कि मेरे यक़ीं में ज़रा गुमाँ भी है
मुझे है शक कि है जो कुछ यहाँ वहाँ भी है

चमक रही है जो आइंदगाँ की राहगुज़र
कुछ इस में रौशनी-ए-गर्द-ए-रफ़्तगाँ भी है

तुम इस क़दर भी ख़राबा न जानो दिल को मिरे
किसी फ़क़ीर का इस दश्त में मकाँ भी है

ठहर गई है कोहर सी फ़ज़ा-ए-मुबहम में
सहर की धुँद भी है रात का धुआँ भी है

हमारी ख़ाक से ज़ेबाइश-ए-अदम ही नहीं
हमारी ख़ाक से रंगीं ये गुलिस्ताँ भी है

जिस आइने में वो क़द अपना देखता है 'शफ़क़'
उस आइने में तो कोताह आसमाँ भी है