ये किस के ख़ौफ़ का गलियों में ज़हर फैल गया
कि एक ना'श के मानिंद शहर फैल गया
नहीं गिरफ़्त में ता-हद्द-ए-ख़ाक का मंज़र
सिमट गईं मिरी बाँहें कि दहर फैल गया
तुझे क़रीब समझते थे घर में बैठे हुए
तिरी तलाश में निकले तो शहर फैल गया
मैं जिस तरफ़ भी चला जाऊँ जान से जाऊँ
बिछड़ के तुझ से तो लगता है दहर फैल गया
मकाँ मकान से निकला कि जैसे बात से बात
मिसाल-ए-क़िस्सा-ए-हिज्राँ ये शहर फैल गया
बचा न कोई तिरी धूप की तमाज़त से
तिरा जमाल ब-अंदाज़-ए-क़हर फैल गया
ये मौज मौज बनी किस की शक्ल सी 'ताबिश'
ये कौन डूब के भी लहर लहर फैल गया
ग़ज़ल
ये किस के ख़ौफ़ का गलियों में ज़हर फैल गया
अब्बास ताबिश