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ये कौन ख़्वाब में छू कर चला गया मिरे लब | शाही शायरी
ye kaun KHwab mein chhu kar chala gaya mere lab

ग़ज़ल

ये कौन ख़्वाब में छू कर चला गया मिरे लब

अहमद मुश्ताक़

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ये कौन ख़्वाब में छू कर चला गया मिरे लब
पुकारता हूँ तो देते नहीं सदा मिरे लब

ये और बात किसी के लबों तलक न गए
मगर क़रीब से गुज़रे हैं बार-हा मिरे लब

अब उस की शक्ल भी मुश्किल से याद आती है
वो जिस के नाम से होते न थे जुदा मिरे लब

अब एक उमर से गुफ़्त-ओ-शुनीद भी तो नहीं
हैं बे-नसीब मिरे कान बे-नवा मिरे लब

ये शाख़साना-ए-वहम-ओ-गुमान था शायद
कुजा वो समरा-ए-बाग़-ए-तलब कुजा मिरे लब