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ये कैसी आग बरसती है आसमानों से | शाही शायरी
ye kaisi aag barasti hai aasmanon se

ग़ज़ल

ये कैसी आग बरसती है आसमानों से

कुमार पाशी

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ये कैसी आग बरसती है आसमानों से
परिंदे लौट के आने लगे उड़ानों से

कोई तो ढूँड के मुझ को कहीं से ले आए
कि ख़ुद को देखा नहीं है बहुत ज़मानों से

पलक झपकते में मेरे उड़ान भरते ही
हज़ारों तीर निकल आएँगे कमानों से

हुई हैं दैर-ओ-हरम में ये साज़िशें कैसी
धुआँ सा उठने लगा शहर के मकानों से

शिकार करना था जिन को शिकार कर के गए
शिकारियो उतर आओ तुम अब मचानों से

रिवायतों को कहाँ तक उठाए घूमोगे
ये बोझ उतार दो 'पाशी' तुम अपने शानों से