ये जोश-ए-ग़म है कि सीने में ख़ूँ उबलता है
न रखियो हाथ कलेजे पे मेरे जलता है
न पूछो दिल की हक़ीक़त तुम्हारे इश्क़ में आह
उसे वो ग़म जो लगा है उसी में गलता है
ये हम को उस की जवानी ने और ईज़ा दी
कि रात दिन कोई सीने में दिल को मलता है
किसी के कान का दुर देखा तू ने 'आशुफ़्ता'
जो अश्क आँखों से मोती सा तेरे ढलता है

ग़ज़ल
ये जोश-ए-ग़म है कि सीने में ख़ूँ उबलता है
मिर्ज़ा रज़ा क़ुली अशुफ़्ता