ये जो इंसाँ ख़ुदा का है शहकार
उस की क़िस्मत पे है ख़ुदा की मार
मर्ग-ए-दुश्मन की आरज़ू ही सही
दिल से निकले किसी तरह तो ग़ुबार
नाम बदनाम हो चुका हज़रत
कीजिए अब तो जुर्म का इक़रार
होगा दोनों का ख़ात्मा बिल-ख़ैर
अब तसादुम में है न जीत न हार
बिक चुकी जिन्स-ए-नादिर-ओ-नायाब
हो चुकी ख़त्म गर्मी-ए-बाज़ार
इत्तिफ़ाक़ी है दो दिलों का मिलाप
कौन सुनता है वर्ना किस की पुकार
हुस्न वालों का पूछना क्या है
जितने दिलकश हैं उतने दिल-आज़ार
जीना मरना है बन पड़े की बात
न ये आसान और न वो दुश्वार
किस को पर्वा कि इन पे क्या गुज़री
ज़िंदगी से जो हो गए बेज़ार
मुल्तफ़ित ख़ुद न हो अगर कोई
आह बे-सूद और फ़ुग़ाँ बे-कार
पुर-सुकूँ नींद चाहते हो 'नज़ीर'
साथ लाना था क़िस्मत-ए-बेदार

ग़ज़ल
ये जो इंसाँ ख़ुदा का है शहकार
नज़ीर सिद्दीक़ी