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ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं | शाही शायरी
ye jo hum atlas o kim-KHwab liye phirte hain

ग़ज़ल

ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं

सुल्तान अख़्तर

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ये जो हम अतलस ओ किम-ख़्वाब लिए फिरते हैं
अज़्मत-ए-रफ़्ता के आदाब लिए फिरते हैं

देख कर उन को लरज़ जाती है हर मौज-ए-बला
अपनी कश्ती में जो गिर्दाब लिए फिरते हैं

तीर कितने हैं लईं और तिरे तरकश में
देख हम सीना-ए-बे-ताब लिए फिरते हैं

देखना उन को भी डस लेगी कड़े वक़्त की धूप
वो जो कुछ ख़्वाहिश-ए-शादाब लिए फिरते हैं

अपनी तहज़ीब का अब कोई तलबगार नहीं
बे-सबब हम पर-ए-सुरख़ाब लिए फिरते हैं

मेरा भी कासा-ए-ताबीर है ख़ाली ख़ाली
वो भी आँखों में कई ख़्वाब लिए फिरते हैं

तीरगी शहर-ए-ग़ज़ालाँ से निकलती ही नहीं
लाख वो सूरत-ए-महताब लिए फिरते हैं

ये तो सदक़ा है 'हुसैन-इब्न-ए-अली' का 'अख़्तर'
तिश्नगी हम जो सर-ए-आब लिए फिरते हैं