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ये जाँ-गुदाज़ सफ़र दाम-ए-ख़्वाब हो न कहीं | शाही शायरी
ye jaan-gudaz safar dam-e-KHwab ho na kahin

ग़ज़ल

ये जाँ-गुदाज़ सफ़र दाम-ए-ख़्वाब हो न कहीं

जावेद शाहीन

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ये जाँ-गुदाज़ सफ़र दाम-ए-ख़्वाब हो न कहीं
रवाँ है जिस में सफ़ीना सराब हो न कहीं

यूँ ही उतरता न जा सर्द गहरे पानी में
चमकता है जो बहुत सेहर-ए-आब हो न कहीं

खड़ा जो झाँकता है कब से गर्म कमरों में
गली में ठिठुरा हुआ माहताब हो न कहीं

हवा ये कौन सी चलती है आर-पार मिरे
खुला हुआ किसी ख़्वाहिश का बाब हो न कहीं

दिलों पे क्यूँ नहीं करतीं असर तिरी बातें
ज़मीं तो ठीक है पानी ख़राब हो न कहीं

ग़ुबार से भरी बोझल फ़ज़ा है दिल पे मुहीत
गरज रहा है जो सर में सहाब हो न कहीं

सजाए फिरता है वो जिस को कोट पर 'शाहीं'
मिरे ही ख़ूँ का महकता गुलाब हो न कहीं