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ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो | शाही शायरी
ye hukm hai ki andhere ko raushni samjho

ग़ज़ल

ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो

ज़ेहरा निगाह

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ये हुक्म है कि अँधेरे को रौशनी समझो
मिले नशेब तो कोह-ओ-दमन की बात करो

नहीं है मय न सही चश्म-ए-इल्तिफ़ात तो है
नई है बज़्म तरीक़-ए-कुहन की बात करो

फ़रेब-ख़ुर्दा-ए-मंज़िल हैं हम को क्या मालूम
ब-तर्ज़-ए-राहबरी राहज़न की बात करो

ख़िज़ाँ ने आ के कहा मेरे ग़म से क्या हासिल
जहाँ बहार लुटी उस चमन की बात करो

क़दम क़दम पे फ़रोज़ाँ हैं आँसुओं के चराग़
उन्हें बुझाओ तो सुब्ह-ए-वतन की बात करो

बहार आए तो चुप चाप ही गुज़र जाए
न रंग-ओ-बू की न सर्व-ओ-समन की बात करो